रचनाकार -इन्द्रेश भदौरिया ( रायबरेली)
किसनू की अम्मा कहै लगीं,
परबाता सासु का मरती हैं।
खाइउ का देतीं नहीं अन्न,
नित ढ्यारन रुवाब बघरती हैं।
लरिकउना की ससुरारी से,
केत्तान मिठाई आवत है।
मुलु वह बुढ़िया तो वहिमा से.
कनकिउ भरि नाहीं पावति है।
आँखिनि कै देखी कहित हवै,
यह कान सुनी नहिं रंच।
मुला हम करित नहीं परपंच।
राम कली बोली भउजी ,
कुछ अइसी राम कहानी है।
लौटन जो दुलहिनि लाये हैं,
वह एकु आँखि कै कानी है।
मुलु लाई लाखन का दहेज,
यहिते सब घर भरि पूजत है।
अक्किल ते लट्ठ चला वहिका,
रोटी तावा पर भूँजत है।
चाहै जेहिते तुम पूँछि लियउ,
जानत है सारा मंच।
मुला हम करित नहीं परपंच।
जगनू की काकी बोलि परी,
यह कउनौ हँसी न ठट्ठा है।
झम्मो के घर मा घुसा रहत,
रमुआ उल्लू का पट्ठा है।
तोता- मैना जस गुटुर गुटुर,
बातन मा दूइउ अघात नहीं।
अब साफ कहित है हम तुमते,
ई लच्छन ठीक देखात नहीं।
कबहूँ दुपहरियो मा आवत,
जब हो दफ्तर मा लंच।
मुला हम करित नहीं परपंच।
जगराना फूफू कहन लगी अब,
सच्चिनि कलजुग गा खराय।
एकु दिन द्याखा भउजीवा ते,
सुखदेउना हँसि हँसि गप्पियाय।
मेहरीवा तब तक देखि लिहिसि,
तो दिहिसि पचासन गारी है।
अब कहिका का कहै वह तौ,
दुइ लरिका कै महतारी है।
सब करम धरम का भारे मा,
यह बात सही सौ टंच।
मुला हम करित नहीं परपंच।
चारि घरन की चारि जनी जब,
एकु जगह पर पहुँचि जांय।
तो बातन बातन मा घर का,
सब कच्चा चिट्ठा खोलि जांय।
केहिके घर मा है बना का,
को कहाँ बइठि के खाइसि है।
काहे के बरे कउनी बीबी,
अपने पति का गरियाइसि है।
मुलु हम संतन ते परी काह,
नहिं वादी नहिं सरपंच।
मुला हम करित नहीं परपंच।