गोपियों का प्रेम वर्णन उद्धव द्वारा

लेखिका- निभा चौधरी ( आगरा)

 

बिरह पीर उर धरि, बौराई सी बन-बन घूमती ,,

गोपी हिरणी सी आकुल, कृष्णा कस्तूरी ढूंढती !!

 

सखि परसों की कह गए, नहिं बरसों बीते जात ,,

स्याम कही मुस्काय, दीन्ह मुरलिया राधे हाथ !!

 

कोमल काया काली पडी,,सुख की रही न चाह ,,

नंगे पैरन में छाले पड़े,जा दर्द को मिले न ठाँह !!

 

हे माधव! गोपी यूँ कहे? अब में ना जानूँ प्रेम सनेह ,,

मेरे छलिया कृष्ण को,अपने इस दिल में है गेह !!

 

ऊधौ ऐसो ज्ञान न दीजिए ,भूलूँ कृष्ण प्रेम की बात ,,

मै तो ग्वालिन गूजरी, भूल गई थी अपनी औकात !!

 

जेठ महीने की तपति धूप मैं, तरु छाया नांहि सुहात ,,

गर्म रेत के स्पर्श में,जा तन पर होय शीत बरसात !!

 

ऊथौ ऐसे ब्रह्म से मत जोड़िए, जाकी नहीं है कोई जाति ,,

 बंशीवट के मध्य सों मोहि मुरली की आबाज सुनाति !!